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‘माय नेम इज खान’ का मसला फिल्म के नफा-नुकसान से बड़ा है। फिल्म के मुख्य किरदार रिजवान खान को उसकी बीवी मंदिरा ने भावावेश में कह दिया है कि किस-किस को समझाते रहोगे कि मुसलमान होने के बावजूद तुम टेररिस्ट नहीं हो। जाओ, अमेरिका के राष्ट्रपति को जाकर बताओ कि ‘माय नेम इज खान एंड आय एम नाट अ टेररिस्ट’। फिल्म का केंद्रीय संवाद फिलहाल इस फिल्म और शाहरुख खान के लिए प्रासंगिक हो गया है। मुंबई में शिवसेना की जिद है कि शाहरुख आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेटरों के शामिल करने के बयान को वापस लें। शाहरुख खान को लगता है और सही ही लगता है कि उन्होंने कोई गलत बात नहीं कही है, इसलिए उसे वापस लेने या माफी मांगने की जरूरत नहीं है। शाहरुख खान ट्विटर के जरिए पूरी दुनिया से संपर्क बनाए हुए हैं और 180 अक्षरों में अपनी मनोदशा और भावना व्यक्त कर रहे हैं।
हमेशा की तरह नपुंसक फिल्म इंडस्ट्री खामोश है। सभी के मुंह पर ताले लग गए हैं। महेश भट्ट जैसी कुछ अपवाद हस्तियां शाहरुख खान के समर्थन में दिख रही हैं। वे आज पिफल्म देखने गण् और अपना स्टैंड सार्वजनिक किश। यह अजीब सी जंग है, जिसमें लड़ना कोई नहीं चाहता, लेकिन जीत की चाहत सभी रखते हैं। अकेले में या ऑफ रिकार्ड बात करो तो सभी शिवसेना की धौंस से दुखी सुनाई पड़ते हैं। फिर भी कोई अपनी बात या विरोध दर्ज नहीं कराना चाहता। कला और मनोरंजन के क्षेत्र की यह विडंबना है कि अभिव्यक्ति की आजादी की चाहत सुरक्षित सुविधाओं के बीच ही की जाती है। डंडा दिखे तो अभिव्यक्ति की चिंता खौफ के खोह में घुस जाती है।
‘माय नेम इज खान’ फिल्म कैसी बनी है? अभी किसी भी समीक्षा या विमर्श से अधिक महत्वपूर्ण इस फिल्म के विवाद के परिणाम और प्रभाव हैं। फिल्म का मूल भाव पर्दे से निकलकर सिनेमाघरों के बाहर आ गया है। यह भाव बाहर आकर दर्शकों को ललकार रहा है। रिजवान खान सिर्फ फिल्मी पात्र नहीं रह गया है। वह हमारे समय की जिंदा हकीकत के तौर पर हमें हैरान कर रहा है। दबाव, दमन और उत्पीड़न के खिलाफ हमेशा एक लहर सी उठती है। आरंभ में ऐसे सामूहिक अकुलाहट का कोई अगुआ नहीं होता, लेकिन समय और विरोध के साथ इस सोच को एक विचार मिलता है और फिर नेतृत्व भी निकल आता है। सिर्फ मुंबई में ही नहीं,बल्कि पूरे देश में लोग फिल्म देखने के लिए टूट पड़े हैं। फिल्म से अधिक उनकी रुचि विरोध में है। वे शाहरूख के समर्थन में सिनेमाघर के बाहर कतार में खड़े हैं।
अपने समाज में फिल्म महज मनोरंजन का माध्यम बना लिया गया है। इस बार ‘माय नेम इज खान’ मनोरंजन की हद से निकल आई है। यह हमें आलोड़ित कर रही है। शाहरुख खान के अटूट स्वाभिमान से दर्शक जुड़ाव महसूस कर रहे हैं। फिल्म के प्रति समर्थन की हवा है। साफ दिख रहा है कि दोराहे पर खड़ी शिवसेना और महाराष्ट्र सरकार के ढुलमुल रवैए को समझते हुए दर्शक लामबंद हो रहे हैं। इस माहौल में भी कुछ लोग और फिल्मों के ट्रेड पंडित नफा-नुकसान के संदर्भ में ही सोच रहे हैं। करण जौहर की फिल्म ‘माय नेम इज खान’ परिस्थितियों के कारण इतनी बड़ी हो गई है कि अब सिनेमाघरों का पर्दा छोटा पड़ रहा है। यह हमारे समय के समाज और संवेदना को झकझोर रही है। करण का यह लक्ष्य नहीं रहा होगा, लेकिन ऐसा हो गया है।
बर्लिन में आज शाम ‘माय नेम इज खान’ कि टिकट 1000 यूरो (लगभीग 60,000 रूपए) में बिके और फिल्म हाउसफुल रही।
और एक बात-प्लीज किसी मल्टीप्लेक्स में फिल्म देख रहे हों और बोर भी हो रहे हों तो पांव न हिलाएं। पड़ोसी सीट पर बैठा मैं परेशान हो जाता हूं और फिल्म से मेरा ध्यान बंट जाता है।
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