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कभी गौर किया है गोरैया पर?

वाया बीजिंग
वाया बीजिंग
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पिछले दिनों फिल्‍मों की शूटिंग कवरेज के लिए मुंबई से बाहर राजस्‍थान के जोधपुर और तमिलनाडु के कराईकुडी जाने का अवसर मिला। मुंबई से बाहर निकलने का कोई निमंत्रण मैं नहीं ठुकराता। ऐसा लगता है कि जितने दिन मुंबई से बाहर रहो, उतने दिन मेरी जिंदगी में जुड़ जाते हैं। अगर जोधपुर और कराईकुडी जैसे खुले, साफ और शुद्ध जगह हों तो यह इजाफा कई गुना होता है।
वहां से लौटने के बाद जब मैं स्‍टारों के इंटरव्‍यू फिर से सुन रहा था तो मुझे उनके स्‍वरों के साथ चहचहाहट सुनाई पड़ी। पक्षियों का कलरव स्‍टारों के स्‍वर पर आजकल के गानों के आर्केस्‍ट्रा की तरह हावी नहीं हो रहा था। इंटरव्‍यू के पार्श्‍व में पक्षियों की चहचहाहट मधुर संगीत पैदा कर रही थी। प्राकृतिक और नैसर्गिक पार्श्‍व संगीत चल रहा था। जोधपुर में हरे-भरे लॉन में अलसाए बच्‍चों की तरह खिसकती धूप और छांव में फुदकती गोरैयों ने काफी देर तक मुझे बांधे रखा। सुध-बुध हर लेती है गोरैया। कभी उन पर गौर करें तो मन फुदकने लगता है। बिहार के छोटे शहरों में बिताए मेरे बचपन में गोरैयों का फुदकना शामिल है। घर में टंगी तस्‍वीरों की फ्रेम के पीछे उनका घोंसला बनाना याद है। आम तौर पर ऊंची छतों के कमरों में छत के ठीक नीचे बने रोशनदान में उनका बसेरा होता था। यहां उनका घोंसला हमारी पहुंच से बाहर और सु‍रक्षित रहता था। जाड़े के दिनों में बंद पंखे के ऊपर ब्रैकेट के नीचे लगी उलटी कटोरी में भी उनका घोंसला तैयार हो जाता था। आसपास के पेड़ों से लटक उनके घोंसले हवा में इठलाते और झूमते रहते थे। ठंड के दिनों में सुबह की सुनहरी धूप में उनका उचक-उचक कर दाने चुगना भुला देता था कि हमें किताबों के पन्‍ने पलटने हैं। एक-दो हाथ पास तक आकर दाना चुग लेने में उन्‍हें डर नहीं लगता था। कई बार तो नाश्‍ते की प्‍लेट से चूड़ा, मूढ़ी, लाई और यहां तक की रोटी चुगने में भी उनके साहस का परिचय मिलता था। हमनिवाला होती थी गोरैया,लेकिन भिी पकड़ में नहीं आती थी। उनकी जोड़ी गिल‍हरी से जमती थी। याद है खाना बनाने के लिए मां रोज चावल बीनने और फटकने का काम करती थी। सूप या डगरे में चावल लेकर वह उंगलियों से मालूम नहीं क्‍या ट्रिक करती थीं कि भूसा और कचरा बाहर निकल आता था। खुद्दी (टुकड़ा चावल) भी मां आंगन में बिखेर देती थी। बगैर झाड़ू लगाए आधे घंटे में अनाज का झाड़न साफ हो जाता था। अब तो मॉल से प्‍लास्टिक थैलियों में बंद चावल के पैकेट आते हैं। उन्‍हें चुनने-फटकने की जरूरत नहीं पड़ती। गली-मोहल्‍ले के पंसारी की दुकानों में भी चावल डब्‍बों में बंद रहते हैं। वे अनाज के बारे बाहर नहीं रखते। दाने-दाने की कीमत हो गई है। वहां भी गोरैया को भोजन नहीं मिलता। हमारे घरों में गोरैया को खिलाने के लिए दाना रखने की जगह ही नहीं बची है। हम ने अपनी इमारतों की ऐसी डिजाइन कर ली है कि गोरैया को घास और तिनके जमा करने का कोना-अंतरा नहीं मिलता। धीरे-धीरे गोरैया हमारे जीवन से गायब हो रही है। हमें कहां फुर्सत है कि हम उनकी कम होती संख्‍या का खयाल करें। कहते हैं गोरैया मानव सभ्‍यता की सबसे पुरानी सहचर है। अब यह हम सभी से दूर जा रही है। उनके लिए हमारा शहर और देश वीराना हो रहा है। शोध बताते हैं कि रेडियो तरंगों से उनके स्‍वास्‍थ्‍य और प्रजनन पर प्रतिकूल असल पड़ता है। आधनिक जीवन के लिए आवश्‍यक बन चुका मोबाइल उनके लिए जानलेवा है। अपने जीवन और प्रजनन को बचाए रखने के लिए वे शहरों की सीमाओं से निकल रही हैं। हमारे जीवन से फुर्र हो रही गोरैया। वैसे भी अब हमारे कानों पर मोबाइल चिपके रहते हैं। कानों को चिड़ियों की चहचहाहट की कमी कैसे महसूस होगी ?
वैज्ञानिक मानते हैं कि मानव सभ्‍यता के वि‍कास और रक्षा के लिए गोरैया से लेकर बाघ तक सभी पशु-पक्षियों का जिंदा रहना जरूरी है। पर्यावरण संतुलन के काम आते हैं पशु-पक्षी। आखिरकार वे हमारे जीवन को सुगम बनाते हैं।

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